अब भी सोफे में है गर्मी बाक़ी
वो अभी उठ के गया हो जैसे
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वाइज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
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न वो इस तरह बदलते न निगाह फेर लेते
जो न बेबसी का मेरी उन्हें ऐतबार होता
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तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
रास्ते मुख़्तसर भी होते हैं
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गोपियों ने सुनी राधिका ने पढ़ी
बांसुरी से लिखी श्याम की चिठ्ठियां
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कर लेंगे खुद तलाश कि मंज़िल है किस तरफ
उकता गए हैं यार तेरी रहबरी से हम
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ख्वाइशों के बदन ढक न पायी कभी
कब मिली है मुझे नाप की ज़िन्दगी ?
-आलोक यादव
सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-05-2018) को "रोटी है तकदीर" (चर्चा अंक-2972) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
Very nice...
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