देखती हूँ सिलवटें ही सिलवटें,
बिछौने पर पड़ी, खुद निकालूँ,
तन की निकालता 'सलाहकार'
मन:स्थिति का, कोई चमत्कार।
धरती पर सिलवट! हाहाकार,
व्योम टिका रहे, खुश बेशुमार।
कैसी भी हों, कहलाए मुसीबत
इन्हें निकालता,'एक मददगार' ।
हवा स्वतंत्र, सहती न सिलवट,
ज़िंदगी अधूरी है! बिना करवट।
यदि जीतना, दुर्गम लक्ष्य चाहो,
साहस से लाँघ लो, हर रुकावट।
-कविता गुप्ता
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-05-2018) को "ये क्या कर दिया" (चर्चा अंक-2960) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अतिसुन्दर
ReplyDeleteसिलवटें मन की, धरती की मिटानी जरूरी हैं...
ReplyDeleteअच्छा बिम्ब दिया!
स्वयं का हौसला ही सलाहकार और मददगार है सुंदर कथन
ReplyDeleteसाहस से लांघ लो हर रुकावट।
प्रेरणा प्रेसित करती रचना।
सुन्दर
ReplyDeleteलाजवाब व सुंदर प्रस्तुती
ReplyDeleteस्वागत हैं आपका खैर
Kitni sundar kavita hai!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
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