तमाम उम्र एक छत के नीचे
निकाल कर औरत ......
अपनों से एक सवाल करती है ...!
क्या वज़ूद है मेरा
सात फेरो संग फ़र्ज़
के बोझ तले दब जाना...!
माँ बन कर
ममता में पिघल जाना .....!
या मायके की दहलीज़ से निकल
ससुराल की ड्योढ़ी पर सर को झुकना ....!
क्या सोचा किसी ने कभी
दर्द मुझ को भी छूता है ......!
मेरे दिल को भी
प्यार भरे शब्दो का एहसास होता है ...!
न मायके की छत ने दिया नाम
मुझे अपना........!
न ससुराल ने कभी मुझे
मेरे वज़ूद में सँवारा ......!
क्यों दुखती है कोई रग
बड़ी शोर मचा कर .......!
क्यों आज फिर एक मन
मायूस हुआ हारा ......!
-मनीषा गुप्ता
सत प्रतिशत सत्य मनीष जी.., सब होते हुए भी कुछ न होना स्त्री के जीवन का सत्य है,शुभकामनाएं इतबी सूंदर रचना के लिए
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteअकथनीय को कहती रचना ..मन जो सुगबुगाहट होती नारी के उनको अल्फाज देती रचना ...बेहतरीन और और विचारणीय लेखन मनीषा जी ..🙏
ReplyDeleteपराई रही सदा पराई
अपना पन ना ओढ़ पाई !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-05-2017) को "देश निर्माण और हमारी जिम्मेदारी" (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह !!!मन को छू गई आप की रचना। लाजवाब !!!
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