Tuesday, December 11, 2018

सिकुड़ गए दिन ....कुमार रवींद्र

ठंडक से
सिकुड़ गए दिन
हवा हुई शरारती - 
चुभो रही पिन

रंग सभी धूप के
हो गए धुआँ
मन के फैलाव सभी
हो गये कुआँ

कितनी हैं यात्राएँ
साँस रही गिन

सूनी पगडंडी पर
भाग रहे पाँव
क्षितिजों के पार बसे
सूरज के गाँव

आँखों में
सन्नाटों के हैं पल-छिन

बाँह में जमाव-बिंदु
पलकों में बर्फ
उँगलियाँ हैं बाँच रहीं
काँटों के हर्फ

धुंधों के खेत खड़ीं
किरणें कमसिन
-कुमार रवीन्द्र

5 comments:

  1. 'क्षितिजों के पार बसे, सूरज के गाँव' वाह क्या बात है?

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-12-2018) को "महज नहीं संयोग" (चर्चा अंक-3183)) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. वाह बहुत सुंदर

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