शब्द हो गये मौन सारे
भाव नयन से लगे टपकने,
अस्थिर चित बेजान देह में
मन पंछी बन लगा भटकने।
साँझ क्षितिज पर रोती किरणें
रेत पे बिखरी मीन पियासी,
कुछ भी सुने न हृदय है बेकल
धुंधली राह न टोह जरा सी।
रूठा चंदा बात करे न
स्याह नभ ने झटके सब तारे,
लुकछिप जुगनू बैठे झुरमुट
बिखरे स्वप्न के मोती खारे।
कौन से जाने शब्द गढ़ूँ मैं
तू मुस्काये पुष्प झरे फिर,
किन नयनों से तुझे निहारूँ
नेह के प्याले मधु भरे फिर।
तुम बिन जीवन मरूस्थल
अमित प्रीत तुम घट अमृत,
एक बूँद चख कर बौराऊँ
तुम यथार्थ बस जग ये भ्रमित।
-श्वेता सिन्हा
अमिय शब्द घट बस भरा भरा ।
ReplyDeleteवाह्ह्ह !
तुम बिन जीवन मरूस्थल,अमित प्रीत तुम घट अमृत,
ReplyDeleteएक बूँद चख कर बौराऊँ,तुम यथार्थ बस जग ये भ्रमित,
बहुत खूब.... श्वेता जी ,एक एक शब्द दिल को छू गया ,सादर स्नेह
श्वेता, बहुत तड़प है, बहत आकुलता है, बहुत निराशा है तुम्हारी कविता में !
ReplyDeleteआत्मा, परमात्मा में लीन होने के लिए ऐसे ही व्याकुल रहती है. किसी सूफ़ी की ज़ुबान में इसे फ़ना होना कहते हैं.
सर, मुझे आप जैसे कहना सिखा दीजिए ना !!! आपकी टिप्पणियाँ कितनी सहज होती हैं, कृत्रिमता से बिल्कुल दूर !
Deleteमीना जी, आप और श्वेता कविता ही ऐसी लिखती हैं कि उनको पढ़कर मेरे भाव स्वतः उमड़ने लगते हैं, उनको शब्द में ढालने का काम ही बस, मुझको करना पड़ता है.
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.12.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3198 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
प्रिय श्वेता, लौकिक को अलौकिक से जोड़ती हुई रचना। बहुत सुंदर !
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