Friday, December 21, 2018

आना जैसे बच्चा आ जाता...गुलज़ार

कभी आ भी जाना
बस वैसे ही जैसे
परिंदे आते हैं आंगन में
या अचानक आ जाता है
कोई झोंका ठंडी हवा का
जैसे कभी आती है सुगंध
पड़ोसी की रसोई से......

आना जैसे बच्चा आ जाता
है बगीचे में गेंद लेने
या आती है गिलहरी पूरे
हक़ से मुंडेर पर

जब आओ तो दरवाजे
पर घंटी मत बजाना
पुकारना मुझे नाम लेकर
मुझसे समय लेकर भी मत आना
हाँ , अपना समय साथ लाना
फिर दोनों समय को जोड़
बनाएंगे एक झूला
अतीत और भविष्य के बीच
उस झूले पर जब बतियाएंगे
तो शब्द वैसे ही उतरेंगे 
जैसे कागज़ पर उतरते हैं
 कविता बन

और जब लौटो तो थोड़ा
मुझे ले जाना साथ
थोड़ा खुद को छोड़े जाना
फिर वापस आने के लिए
खुद को एक-दूसरे से पाने
के लिए।
-गुलज़ार

9 comments:

  1. बेहतरीन आदरणीया 👌

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  2. सुबह-सुबह गुलज़ार का कोई क़लाम पढ़ लो तो सारा दिन गुलज़ार रहता है. कितना अपनापन होता है उनकी शायरी में! लगता है कि हमारे दिल की आवाज़ को ही वो अपने अल्फ़ाज़ में ढाल लेते है.

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  3. वाह बहुत सुन्दर!
    गुलजार साहब की हर कृति लाजवाब ज्यों दिल के करीब से निकल कर आई हो सरल सहज प्राकृतिक ।

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  4. सादर आभार इतनी सुन्दर रचना के लिए ।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-12-2018) को "जनता जपती मन्त्र" (चर्चा अंक-3193) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. और जब लौटो तो थोड़ा
    मुझे ले जाना साथ
    थोड़ा खुद को छोड़े जाना
    फिर वापस आने के लिए
    खुद को एक-दूसरे से पाने
    के लिए।.... आभार इस रचना को शेयर करने के लिए

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  7. वाह, बहुत खूब

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