पत्थर के शहर में शीशे का मकान ढूँढ़ते हैं।
मोल ले जो तन्हाइयाँ ऐसी एक दुकान ढूँढ़ते हैं।।
हर बार खींच लाते हो ज़मीन पर ख़्वाबों से,
उड़ सकें कुछ पल सुकूं के वो आसमां ढूँढ़ते हैं।।
बार-बार हक़ीक़त का आईना क्या दिखाते हो,
ज़माने के सारे ग़म भुला दे जो वो परिस्तां ढूँढ़ते हैं।।
जीना तो होगा ही जिस हाल में भी जी लो,
चंद ख़ुशियों की चाह लिए पत्थर में जान ढूँढ़ते हैं।।
ठोकरों में रखते हैं हरेक ख़्वाहिश इस दिल की,
उनकी चौखट पे अपने मरहम का सामान ढूँढ़ते हैं।।
-श्वेता सिन्हा
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-12-2018) को "द्वार पर किसानों की गुहार" (चर्चा अंक-3174) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
वाह!!श्वेता ,बहुत खूब!!
ReplyDeleteहर बार खींच लाते हो ज़मीन पर ख़्वाबों से,
ReplyDeleteउड़ सकें कुछ पल सुकूं के वो आसमां ढूँढ़ते हैं।।
सुंदर शायरी रची गयी है...बधाई आदरणीय श्वेता जी
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteप्रिय श्वेता बहुत ही उम्दा शर हैं | हर शेर की अपनी नज़ाकत है |
ReplyDeleteर बार खींच लाते हो ज़मीन पर ख़्वाबों से,
उड़ सकें कुछ पल सुकूं के वो आसमां ढूँढ़ते हैं।।
इस अनुपम शायरी के लिए हार्दिक बधाई और शुभ कामनाएं |
बहुत बढ़िया, अत्ति सुंदर ! जारी रखे ! Horror Stories
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