पिता
मेरी धमनियों में दौड़ता रक्त
और तुम्हारी रिक्तता
महसूस करती मैं,
चेहरे की रंगत का तुमसा होना
सुकून भर देता है मुझमें
मैं हूँ पर तुम-सी
दिखती तो हूँ खैर
हर खूबी तुम्हारी पा नहीं सकी
पिता
सहनशीलता तुम्हारी,
गलतियों के बावजूद मॉफ करने की
साथ चलने की
सब जानते चुप रहने की
मुझे नहीं मिली
मैं मुँहफट हूँ कुछ, तुमसी नहीं
पर होना चाहती हूँ
सहनशील
तुम्हारे कर्तव्यों सी निष्ठ बन जाऊँ एक रोज
पिता
महसूस करती हूँ
मुरझाए चेहरे के पीछे का दर्द
तेज चिडचिडाती रौशनी में काम करते हाथ
कौन कहता है पिता मेहनती नहीं होते
उनकी भी बिवाइयों में दरार नहीं होती है
चेहरे पर झुर्रियां
कलेजे में अनगिनत दर्द समेटे
आँखों में आँसू छिपा
प्यार का अथाह सागर
होता है पिता
तुम
सागर हो
आकाश हो
रक्त हो
बीज हो
मुझमें हो
बस और क्या चाहिए
पिता
जो मैं हूबहू तुमसी हो जाऊँ ।
-दीप्ति शर्मा
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteमाँ पर अनगिनत रचनाएँ किन्तु पिता की साहित्य-जगत में नितांत उपेक्षा ! दीप्ति जी, आपकी कविता ने इस कमी को पूरा करने की सार्थक कोशिश की है. माँ तो बोल भी लेती है और रो भी लेती है लेकिन पिता बोलता भी कम है और रोने में शर्माता भी बहुत है. संतान के प्यार का हक़दार तो यह मूक व्यक्ति भी होना चाहिए.
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह ! मर्मस्पर्शी.
ReplyDeleteसुंदर और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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