ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!
आदमियत का पता तक नही
गजब करते हो इंसान ढूंढते हो !
यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !
आईनों में भी दगा भर गया यहां
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे
तूफानों पर क्यूं इल्जाम ढूंढते हो !
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूढते हो!
भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरे आम ढूंढते हो।
-कुसुम कोठारी
कुसुम जी, खुद के अन्दर झाँकने के लिए मजबूर करने वाली बहुत सुन्दर कविता !
ReplyDeleteहमारे हुक्मरान और धर्म-रक्षक तो राम जी को अयोध्या के मंदिर में क़ैद करना चाहते हैं, वो उनको गलियों में खोजने की नादानी नहीं करते.
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
ReplyDeleteवहां मासूमियत की पनाह ढूढते हो!
सच कहा आप ने कुसुम जी,आज के बच्चो के तो मासूमियत भी भी खो गई है सादर स्नेह सखी
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-12-2018) को "यीशु, अटल जी एंड मालवीय जी" (चर्चा अंक-3197) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर कहा कुसुम जी, भगवान अब महलों में सज के रह गये...वाह
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