बाग जैसे गूँजता है पंछियों से
घर मेरा वैसे चहकता बेटियों से
घर में आया चाँद उसका जानकर वो
छुप के देखे चूड़ियों की कनखियों से
क्या मेरी मंज़िल मुझे ये क्या ख़बर
कह रहा था फूल इक दिन पत्तियों से
दिल का टुकड़ा है डटा सीमाओं पर
सूना घर चहके है उसकी चिट्ठियों से
बंद घर देखा जो उसने खोलकर
एक क़तरा धूप आयी खिड़कियों से
एक शजर ख़ुद्दार टकराने को था
थी चुनौती सामने जब आँधियों से
ख़्वाब में देखा पिता को य़ूँ लगा
हो सदाएँ मंदिरों की घंटियों से
फोन वो खुशबू कहाँ से लाएगा
वो जो आती थी तुम्हारी चिट्ठियों से
-ममता किरण
सुंदर प्रभावशाली रचना....
ReplyDeleteवाह !!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.... लाजवाब
सुन्दर
ReplyDeleteसारे शेर बेहतरीन सुंदर रचना उम्दा हौले मन मे बसती सी ।
ReplyDeleteवाह !!! बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना
शानदार प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (29-01-2018) को "नवपल्लव परिधान" (चर्चा अंक-2863) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
वाह!!लाजवाब।
ReplyDeleteवाह. बहुत khub
ReplyDeleteवाह्ह्ह...दी बहुत सुंदर रचना👌
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