हीरा बना के दिल को उसमें देनी जान है
वरना तो क्या है ज़िन्दगी कोयले की खान है
चाँद सी सूरत को ही आना है उतर कर
तारे सा मैंने दिल पे बनाया निशान है
शीरीं है, बू-ए-गुल है जो छोड़े है लाल रंग
बोसा है या गुलकंद से भरा मीठा पान है
लाता है तबस्सुम अगर चहरे पे चार चाँद
ग्रहण वहीं लग जाता जब चलती ज़बान है
लेने खड़े हैं ना जाने कितने ही खरीदार
दर तेरा हसीना है या दिल की दुकान है
मुश्क़िल बता के इश्क़ को गुमराह कर रखा
जीतेजी है मरना कहो कितना आसान है
माशूक़ की बाहों में निकले दम वो सच्चा इश्क़
सरहद पे वतन की खड़ा कहता जवान है
मौत होती पहले, ज़िन्दगी फिर ‘मुफज़्ज़ल’
ख़ौफ़ में जी-जी के दी कितनों ने जान है !!
-डॉ. मुफज़्ज़ल ज़ुल्फेक़ार
वाह
ReplyDeleteवाह कमाल की शब्दों की जादूगरी ... बहुत खुब लिखा आपने।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-01-2018) को "साँसों पर विश्वास न करना" (चर्चा अंक-2855) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
ReplyDeletesuper
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