पेड़ों की टहनियों से
धूप के टुकड़ों सा, तुम्हारी यादें
छनकर मेरे स्मृति पटल पर
सिमट जाती है.
आती हो अक्सर कुछ इसी तरह, फिर
हल्की हवा के चलने पर
टहनियों के इधर से उधर होने पर
दो पत्तियों के बीच
किसी तीसरी पत्ती के आने से
रोशनी का कारवां
कुछ पल मानो कहीं खो सी जाती है/
धूप के कुछ टुकड़े
माना कि आंखों पर लगते हैं
त्वचा पर चुभते हैं
मस्तिष्क को भी बेचैन रखते हैं.
लेकिन... धूप के यही कुछ टुकड़े
सुकून देते हैं
जब जब कभी झुरमुट से छनकर
स्मृति पटल पर सिमट जाते हैं.
सब कुछ ठीक वैसे ही लगता है
जैसे तुम किसी अंधेरी गली से निकल कर
इस मन से लिपट जाते हो
न जाने क्या कुछ इस मन को दे जाते हो.
धूप के ये कुछ टुकड़े न जाने क्यों
अंधेरी रात में नहीं आते
नहीं आते तुम भी
जब कभी जीवन के आकाश में
बादल बिखरे होते हैं.
- शिवराम के
सुन्दर
ReplyDeleteयादों की धरोहर।
ReplyDeleteअतिउत्तम।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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