सखि, वसन्त आया।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी-पिक-स्वर
नभ सरसाया।
लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर,
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छूटे
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
बसंत ज्यों शब्दों मे बैठा मां सरस्वती का आशीर्वाद पा गया निराला जी छाया वाद के प्रणेता और उच्चतम कोटि के छायावादी कवि कोई भी कविता उठा लो सीधे अंदर तक छूती है।
ReplyDeleteदी बहुत सुंदर समय के सोपान पर खडी उज्ज्वल रचना।
सुप्रभात शुभ दिवस।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-01-2018) को "महके है दिन रैन" (चर्चा अंक-2858) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति .. नमन !
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