चुपचुप धीमे-से रुकते,
झिझकते मत बुदबुदाओ।
डर और सन्नाटे में
संगीत बन मत गुनगुनाओ।
शब्दो! तुम बन जाओ
हथौड़ों की गूंज।
ठक-ठक कर हिलाते रहो;
जंग लगे बन्द दरवाज़ों की चूल।
बजो तो तुम नगाड़ों की तरह,
कि न कर पाये कोई बहरेपन का स्वांग।
शब्दों तुम बरसो,
बारिश की फुहार बन कर;
अरसे से बंजर पड़ी
धरती पर, अरमान बन लहलहाओ।
ठस और ठोस
संकीर्ण और सतही,
मन की जड़ता को
तुम पंख दो शब्दो।
आकाश की तरलता में उड़ते रहें स्वप्न।
विस्तारती रहे सोच।
धूमकेतुओं की तरह
पड़ताल करती रहें नक्षत्रों की।
शब्दो! तुम काग़ज़ पर उकेरी गई
बेमतलब रेखाएं नहीं।
गढ़ो नई परिभाषाओं को।
-डॉ. प्रभा मुजुमदार
वाह
ReplyDelete👏👏👏👏नायाब लेखन
ReplyDelete👌👌👌👌👌👌👌
पँख तोल कर उड़ चलो
लो ऐसी परवाज़
आँधी देखे क़दम थाम ले
हो ऐसा अंदाज !
वाह सुंदर ।
ReplyDeleteशब्दों तुम अक्षर बन अनंत तक छा जाओ अक्षय अखंड।
वाह, वाह अतिसुन्दर
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