उठ जाता हूं भोर से पहले सपने सुहाने नही आते ,
अब मुझे स्कूल न जाने वाले बहाने बनाने नही आते ,
कभी पा लेते थे घर से निकलते ही मंजिल को ,
अब मीलों सफर करके भी ठिकाने नही आते ,
मुंह चिढाती है खाली जेब महीने के आखिर में ,
अब बचपन की तरह गुल्लक में पैसे बचाने नही आते ,
यूं तो रखते हैं बहुत से लोग पलको पर मुझे ,
मगर बेमतलब बचपन की तरह गोदी उठाने नही आते ,
माना कि जिम्मेदारियों की बेड़ियों में जकड़ा हूं ,
क्यूं बचपन की तरह छुड़वाने वो दोस्त पुराने नही आते ,
बहला रहा हूं बस दिल को बच्चों की तरह ,
मैं जानता हूं फिर वापस बीते हुए जमाने नही आते.....!!
-मनोज पुरोहित
ब्रांच मैनेजर
एस बी आई लाइफ
नाहन
सुंदर लेखन
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteरचना बहुत ही सुंदर है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ...
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (25-01-2018) को "कुछ सवाल बस सवाल होते हैं" (चर्चा अंक-2859) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कमाल की रचना
ReplyDeleteवाह