Monday, January 15, 2018

दर्द कागज़ पर मेरा बिकता रहा​...प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर

दर्द कागज़ पर मेरा बिकता रहा​
​मैं बैचैन था रात भर लिखता रहा !!​

​छू रहे थे सब बुलंदियाँ आसमान की​
​मैं सितारों के बीच, चाँद की तरह छिपता रहा !!​

​दरख़्त होता तो, कब का टूट गया होता​
​मैं था नाज़ुक डाली, जो सबके आगे झुकता रहा !!​

​बदले यहाँ लोगों ने, रंग अपने-अपने ढंग से​
​रंग मेरा भी निखरा पर, मैं मेहँदी की तरह पीसता रहा !!​

​जिनको जल्दी थी, वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,​
​मैं समन्दर से राज गहराई के सीखता रहा !​
प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर

6 comments:

  1. बहुत सुंदर ....आभार

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  2. वाह!!नीतू ,बहुत खूब !!
    क्या बात है..दर्द काग़ज़ पर मेरा बिकता रहा ....

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-01-2018) को "सारे भोंपू बेंच दे, यदि यह हिंदुस्तान" (चर्चामंच 2850) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!

    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति.

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  5. बहुत ख़ूब ...
    डाली बनना ही अच्छा ... टूटने का डर नहीं ...
    हर शेर लाजवाब है ग़ज़ल का ...

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