Friday, December 1, 2017

भोर का संजीवन लाता सूरज....श्वेता सिन्हा

भोर की अलगनी पर लटके
घटाओं से निकल बूँदें झटके
स्वर्ण रथ पर होकर सवार
भोर का संजीवन लाता सूरज

झुरमुटों की ओट से झाँकता
चिड़ियों के परों पर फुदकता
सरित धाराओं के संग बहकर
लिपट लहरों से मुस्काता सूरज

धरा के कण कण को चूमता
बाग की कलियों को सूँघता
झिलमिल ओस की बूँदें पीकर
मदमस्त होकर बौराता सूरज 

उजाले की डिबिया को भरकर
पलक भोर की खूब सजाता 
गरमी,सरदी, बसंत या बहार 
साँकल आके खड़काता सूरज

महल झोपड़ी का भेद न जाने
जीव- जगत वो अपना माने
उलट किरणों की भरी टोकरी
अंधियारे को हर जाता  सूरज

-श्वेता सिन्हा

8 comments:

  1. वाह....बहुत सूंदर

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-12-2017) को "पढ़े-लिखे मुहताज़" (चर्चा अंक-2805) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. वाह !सुहानी भोर का मनोरम दृश्य उकेरती आधुनिक कविता जो कुछ नए-पुराने शब्दों से भी परिचित कराती है। वाचक को सुखद एहसास कराती हुई कल्पनालोक की यात्रा पर ले जाती उत्कृष्ट रचना। बधाई एवं शुभकामनाऐं आदरणीया श्वेता जी।

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  4. हमेशा की तरह लाजवाब शब्दों की जादूगरी कोई आप से सीखे श्वेता अतुलनीय काव्य आपका हर दिन और भी निखरता जा रहा है।
    शुभ संध्या।

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  5. जब प्रकाश का आगमन होता है तो कितना कुछ साथ स्वतः हाई आ जाता है ...

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  6. सुन्दर रचना

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  7. महल झोपड़ी का भेद न जाने

    जीव- जगत वो अपना माने
    वाह.
    सचमुच प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती. यह तो हम मनुष्यों की देन है. मनोहारी रचना.बधाई

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