कांपती हड्डियाँ ठिठुरते गात
है निर्दय सी ये पूस की रात ....
घुटनों में शीश झुका बैठे है
कातर स्वर से पुकार उठे है
न जाने कब होगी प्रभात , है निर्दय ....
लाचार बहुत मजबूर ये जान
संघर्ष में जीते हैं इन्सान
कुदरत देती है कठोर सी घात , है निर्दय ....
बर्फ सी बहती ठंढी बयार
आग की लपटें है अंगीकार
निष्प्रभ लोचन बंधे है हाथ , है निर्दय ....
सभ्यता के इस दंगल में
अंतर करना है मुश्किल में
होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ....
-भारती दास
सभ्यता के इस दंगल में
ReplyDeleteअंतर करना है मुश्किल में
होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ये पूस की रात
सुंदर रचना, शब्दों का चयन बेहतरीन।।।
वाह
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteसुंदर रचना...
ReplyDeleteवाह!!!सुंंदर रचना।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-12-2017) को "सत्य को कुबूल करो" (चर्चा अंक-2825) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन खूबसूरत सर्दियों का एहसास दिलाती पंक्तियाँ
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