कांपती हड्डियाँ ठिठुरते गात
है निर्दय सी ये पूस की रात ....
घुटनों में शीश झुका बैठे है
कातर स्वर से पुकार उठे है
न जाने कब होगी प्रभात , है निर्दय ....
लाचार बहुत मजबूर ये जान
संघर्ष में जीते हैं इन्सान
कुदरत देती है कठोर सी घात , है निर्दय ....
बर्फ सी बहती ठंढी बयार
आग की लपटें है अंगीकार
निष्प्रभ लोचन बंधे है हाथ , है निर्दय ....
सभ्यता के इस दंगल में
अंतर करना है मुश्किल में
होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ....
-भारती दास
सभ्यता के इस दंगल में
ReplyDeleteअंतर करना है मुश्किल में
होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ये पूस की रात
सुंदर रचना, शब्दों का चयन बेहतरीन।।।
सुन्दर
ReplyDeleteसुंदर रचना...
ReplyDeleteवाह!!!सुंंदर रचना।
ReplyDeleteबेहतरीन खूबसूरत सर्दियों का एहसास दिलाती पंक्तियाँ
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