Thursday, December 21, 2017

पूस की रात.....भारती दास

कांपती हड्डियाँ ठिठुरते गात 
है निर्दय सी ये पूस की रात ....
घुटनों में शीश झुका बैठे है 
कातर स्वर से पुकार उठे है 
न जाने कब होगी प्रभात , है निर्दय ....
लाचार बहुत मजबूर ये जान
संघर्ष में जीते हैं इन्सान
कुदरत देती है कठोर सी घात , है निर्दय ....
बर्फ सी बहती ठंढी बयार 
आग की लपटें है अंगीकार
निष्प्रभ लोचन बंधे है हाथ , है निर्दय ....
सभ्यता के इस दंगल में 
अंतर करना है मुश्किल में 
होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ....

-भारती दास

5 comments:

  1. सभ्यता के इस दंगल में
    अंतर करना है मुश्किल में
    होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ये पूस की रात
    सुंदर रचना, शब्दों का चयन बेहतरीन।।।

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  2. वाह!!!सुंंदर रचना।

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  3. बेहतरीन खूबसूरत सर्दियों का एहसास दिलाती पंक्तियाँ

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