सूनी मुंडेरें
ये शाम की तन्हाई
कहां हो गुम।
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सूरज डूबा
क्षितिज है रंगीन
घिरी उदासी।
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परछाई से
निकली यादें पुरानी
बनी दास्तान ।
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निस्तब्ध मन
इंतजार करता
होले होले से।
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दूर आसमां
एक सूरत दिखी
शायद तुम्ही।
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फिजा श्यामल
लहराया रात का
नीला आंचल।
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शमाऐं जली
फिर यादें मचली
कब आवोगे।
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चांद निकला
शमा हुआ रौशन
फिर भी कमी।
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रात खमोश
तारे हैं झिलमिल
फिजा उदास।
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ढली रजनी
धीरे धीरे मन की
आस भी टूटी।
-कुसुम कोठारी
सुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteमन से लिखी
ReplyDeleteमन ने पढ़ी
बहुत सुंदर
कितने सुंदर
रंग सजे है
इसके अंदर
रंग जाऊँगी तुझमे
खो जाऊँगी
परछाई हो जाऊँगी
बेहतरीन रचना मीता ....आफरीन
ReplyDelete👌👌👌👌👌👌👌
यादैं कब रोके रुकती है
सुबह शाम दोनो वक्त चुभती है
परछाई सी संग चले जब
छोटी और बड़ी लगती है !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-12-2017) को "दिसम्बर लाता है नया साल" (चर्चा अंक-2806) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
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