सर्द हवा की थाप ,
बंद होते दरवाजे खिडकियां
नर्म गद्दौ में रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
आज कितनी ठंड है
कभी ख्याल आया उनका
जिन के पास रजाई तो दूर
हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी और
ठंड कम हो जायेगी
अपनी भूख, बेबसी,
औऱ कल तक अस्तित्व
बचा लेने की लड़ाई
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ
आज थोड़ा आटा हो तो
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।
-कुसुम कोठरी...
गरीबी और हालात पर कुठाराघात करती बेहतरीन कविता।
ReplyDeleteजी सादर आभार।
Deleteशुभ रात्री
सत्यता को दर्शाती अनूठी रचना
ReplyDeleteस्नेह आभार शकुंतला जी।
Deleteशुभ रात्री।
बहुत ही शानदार
ReplyDeleteनिखरती जा रही है रचना
आभार नीतू जी।
Deleteशुभ रात्री।
बहुत खूब!!
ReplyDeleteढेर सा आभार शुभा जी।
Deleteशुभ रात्री।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-12-2017) को जानवर पैदा कर ; चर्चामंच 2815 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरी रचना को चुनेने के लिये सादर आभार।
Deleteमै अनुग्रहित हुई।
शुभ रात्री।
जी सादर आभार।
ReplyDeleteशुभ रात्री।
मार्मिक ... न जाने कितने हाई लोगों की हक़ीक़त है ...
ReplyDeleteऔर सुना है हमने बहुत तरक़्क़ी कर ली है ...
सही कहा....
ReplyDeleteयही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है देश का......
बहुत सुन्दर
वाह!!!!
बहुत सुंदर
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