कहीं सफ़ेद कहीं रंग इसका काला है
अँधेरा है कि तिरे शहर में उजाला है
अभी तलक तो है इंसानियत हमारे बीच
अभी तलक तो मुहब्बत का बोल-बाला है
वो जिसको पाँव की जूती समझ रहे थे सब
कभी वो लक्ष्मीबाई कभी मलाला है
ख़ला में शोर जमा कर रहा है दीवाना
अभी तलक ये जो इंसाँ है भोला-भाला है
ज़मीं गुनाहों के लावे से पक रही है अभी
ये सारा सब जो है धरती का इक निवाला है
लगाऊं सेंध किसी तरह उसके दिल तक मैं
ख़ज़ाना हुस्न का उसके चुराने वाला है
मिरा तो “सोज़” ही ईमान है मुहब्बत पर
मिरे लिये यही मस्जिद यही शिवाला है
अहमद सोज़ 09867220699
खूबसूरत गजल ......गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएं....
ReplyDeleteBahoot sunder aap ke shabdo ne hrady chu liya
ReplyDeleteबहुत प्रभावी......
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