घटा हवा का ताप
बढ़ा मन का अभिलाष
पतझड़ के भय से
शिशिर रीत न जाए
बिन पिया,
गजरे का क्या मोल सखी।
खिली है गुलाबी धूप
देख! गगन का नीलाभ आंचल
श्वेत कपोत करते किल्लोल
यादों की डोर थामे
दुलारूं बीते दिनों को।
लिख दे प्रीतम को पाती
बीत न जाए कहीं
ये शिशिर के दिन सखी।
-कुंती मुखर्जी
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