Friday, March 27, 2020

आँगन...आशा लता सक्सेना

बदले समय के  साथ में  
बढ़ती जनसंख्या के भार से
बड़े मकानों का चलन न रहा  
रहनसहन का ढंग बदला |
पहले बड़े मकान होते थे
उनमें आँगन होते थे अवश्य
दोपहर में चारपाई डाल महिलाएं
 बुनाई सिलाई करतीं थीं
 धूप का आनंद लेतीं थीं |
अचार चटनी मुरब्बे में धूप लगातीं
गर्मीं में ऊनी कपडे सुखाना 
सम्हाल कर रखना नहीं भूलतीं थीं
आँगन  ही  थी  कर्मस्थली उनकी |
बच्चों के  खेल का मैदान भी वही था  
 रात में चन्दा मांमा को देख कर  खुश होने  को कैसे भूलें
तारों  के संग बातें करना
 मां से  कहानी सुनना  न  छूटा कभी |
जब कोई तारा टूटता
 मांगी   मुराद पूरी करता
हाथ जोड़    कभी  मन की  मुराद  माँगते
या चाँद पकड़ने के लिए बहुत बेचैन रहते  |
मां थाली में जल भर कर 
चन्द्रमा के अक्स को दिखा कर हमें बहलातीं 
फिर थपकी दे कर हमें सुलातीं | 
आज  शहरों के बच्चे रात में
बाहर निकलने से भयाक्रांत होते है
शायद उन्हें यही भय रहता है
 कहीं चाँद उन पर ना  गिर जाए |
कारण समझने में देर न लगी
बढ़ती आबादी ने आँगन सुख से दूर किया है
छोटे मकानों में आँगन की सुविधा कहाँ  
  यादें भर शेष रह गईं है घर के बीच आँगन की !!

लेखिका - आशा लता सक्सेना 

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. पुरानी यादों को ताज़ा कराती सार्थक रचना !

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