एक सुरमई भीगी-भीगी शाम,
ओढ़कर चुनर चांदनी के नाम।
सुनो, तुम जरा मेरे साथ तो आओ,
कुछ मौसमों को भी बुला लाओ।
मैं ...... मैं बादल ले आऊं,
और इस भीगी-भीगी शाम में,
गुलमोहरी मधुमास चुराऊं।
सुनो, तुम आज कुछ बिगड़ो, कुछ बनो,
और आंधियां भी संग ले आओ।
मैं........मैं चिराग बन जाऊं,
और इस आंधी संग जल-जल के,
अपना विश्वास आजमाऊं।
सुनो, तुम कुछ पल पहाड़ बन जाओ,
और सन्नाटे से लहरा जाओ।
मैं........मैं धुंधला के सांये-सी मचलूं,
सन्नाटे में तुम्हारा नाम पुकारूं।
सुनो, तुम आज वक्त बन जाओ,
और मेरे लिए थोड़े ठहर जाओ।
मैं............मैं फिर स्मृतियां छू लूं,
दर्पण में अनुरागी छवियां निहार लूं।
सुनो, तुम आज मेरा आंगन बन जाओ,
और मेरा सपना बनकर बिखर जाओ।
मैं...मैं मन के पलाश-सी खिल जाऊं,
अनुरक्त पंखुरी-सी झर-झर जाऊं।
सुनो, फिर एक सुरमई भीगी-भीगी शाम,
ओढ़कर चुनर चांदनी के नाम ।
मैं........तुम्हारी आंखों के दो मोती चुराऊं
और उसमें अपना चेहरा दर्ज कराऊं।
-निशा माथुर
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 31 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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