एक ब्रजभाषा छन्द
महीना पच्चीस दिन दूध-घी उड़ामें और
जाय कें अखाडें दण्ड-बैठक लगामें हैं॥
मूछ'न पे ताव दै कें जंघ'न पे ताल दै कें
नुक्कड़-अथाँइ'न पे गाल हू बजामें हैं|
पिछले बरस बारौ बदलौ चुकामनौ है,
पूछ मत कैसी-कैसी योजना बनामें हैं|
लेकिन बिचारे 'वीर' बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोपि'न सों घर लौट आमें हैं||
-नवीन चन्द्र चतुर्वेदी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 11 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteखूबसूरत
ReplyDeleteवाह ,बहुत बढ़िया
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