बढ़ती जनसंख्या के भार से
बड़े मकानों का चलन न रहा
रहनसहन का ढंग बदला |
पहले बड़े मकान होते थे
उनमें आँगन होते थे अवश्य
दोपहर में चारपाई डाल महिलाएं
बुनाई सिलाई करतीं थीं
धूप का आनंद लेतीं थीं |
अचार चटनी मुरब्बे में धूप लगातीं
गर्मीं में ऊनी कपडे सुखाना
सम्हाल कर रखना नहीं भूलतीं थीं
आँगन ही थी कर्मस्थली उनकी |
बच्चों के खेल का मैदान भी वही था
रात में चन्दा मांमा को देख कर खुश होने को कैसे भूलें
तारों के संग बातें करना
मां से कहानी सुनना न छूटा कभी |
जब कोई तारा टूटता
मांगी मुराद पूरी करता
हाथ जोड़ कभी मन की मुराद माँगते
या चाँद पकड़ने के लिए बहुत बेचैन रहते |
मां थाली में जल भर कर
चन्द्रमा के अक्स को दिखा कर हमें बहलातीं
फिर थपकी दे कर हमें सुलातीं |
आज शहरों के बच्चे रात में
बाहर निकलने से भयाक्रांत होते है
शायद उन्हें यही भय रहता है
कहीं चाँद उन पर ना गिर जाए |
कारण समझने में देर न लगी
बढ़ती आबादी ने आँगन सुख से दूर किया है
छोटे मकानों में आँगन की सुविधा कहाँ
यादें भर शेष रह गईं है घर के बीच आँगन की !!
लेखिका - आशा लता सक्सेना
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteपुरानी यादों को ताज़ा कराती सार्थक रचना !
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