अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में
तलाश अपनेपन कि यहाँ जारी है
होश को होश नहीं मय के आगोश में
ख़तम न होने वाली ये बेकरारी है
अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में …
हर रात सी लेता हूँ मैं चाक दिल के
सुबह फिर चोट खाने की तैयारी है
अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में …
मेरा वजूद तो बंजारों सा है
फिर किसी और मकाम की बारी है
अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में …
रखना पड़ता है निवालों का हिसाब
इस मुल्क में इसकदर बेरोजगारी है
अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में …
इस कदर हैं बदहाल है मेरा नसीब
कमी पैसों कि मेरी खाईश पे भारी है
अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में …
अजनबी हूँ इस अजनबी शहर में
तलाश अपनेपन कि यहाँ जारी है
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 26 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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