रोज ही चल पड़ती है
थामकर मेरा हाथ,
बड़ी चालाकी से ये ज़िंदगी
दिखाती है सुनहरे ख़्वाब.
थमे न थे पैर कभी
रुके न मन की आस
लालसाओं के भंवरजाल में
कराती नहीं आभास.
यूं ही छोड़ देगी किसी दिन
अनजाने एक मोड़ पर
करके कुछ बेचैन मुझे
छोड़कर कुछ सवाल.
सौंप देगी नया एक पिंजर
चल देगी फिर अपनी राह
सदियों की इस लंबी यात्रा पर
कहां थमेगी किस जगह पर.
- अनीता वाधवानी
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " मंगलवार 06 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-08-2019) को "पूरे भारतवर्ष में, होगा एक विधान" (चर्चा अंक- 3420) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteयूं ही पंजर बदलते रहे बे मकसद
ReplyDeleteकभी इस घर तो कभी उस घर
बता ऐ जिन्दगी आखिर तेरी रजा क्या होगी
कोई ठिकाना भी होगा कभी या बेनाम भटकन होगी।
बहुत सुंदर आध्यात्मिक सृजन।
बेहद शानदार लाजवाब हैं
ReplyDeleteवाह सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteयूं ही छोड़ देगी किसी दिन
ReplyDeleteअनजाने एक मोड़ पर
करके कुछ बेचैन मुझे
छोड़कर कुछ सवाल.
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब...