Wednesday, August 28, 2019

विजयी के सदृश जियो रे... रामधारी सिंह दिनकर

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो 
चट्टानों की छाती से दूध निकालो 
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो 
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो 

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे 
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे! 

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है 
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है 
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है 
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है 
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे 
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे! 
-रामधारी सिंह दिनकर

6 comments:

  1. दिनकर जी की खूबसूरत कविता।

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  2. Wow such great and effective
    Thank you so much for sharing this.
    BhojpuriSong.in

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  3. ओज भरी रचना जिसके बारे में लिखना सूरज को दीपक दिखाने के सामान है | नमन राष्ट कवि

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  4. दिनकर जी को नमन ,अति उत्तम

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