Friday, August 2, 2019

मन, शहरी नही हुआ.....संध्या शर्मा


रोटी, मन, गाँव, शहर
सब्जी तरकारी में
फूलों की क्यारी में
रोटी के स्वाद में 
पापड़ अचार में 
मेवों पकवानों में
ऊँचे मकानों में 
बूढे से बरगद में
शहरों की सरहद में 
तीज त्योहार में 
मान मनुहार में
लोक व्यवहार में 
नवीन परिधान में 
बेगानो की भीड़ में 
संकरी गलियों में 
मौन परछाइयों में 
कांक्रीट की ज़मीन में 
धुँआ-धुँआ आसमां में 
अब भी गाँव ढूँढता है 
मन, शहरी नही हुआ ....


लेखिका परिचय - संध्या शर्मा 

6 comments:

  1. बेहतरीन रचना
    आभार
    सादर...

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  2. निसंदेह सत्य बेहतरीन उपलब्धि

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  3. वाह सन्ध्या . यहाँ गुजरते हुए तुम मिल गईं अचानक . मन सचमुच सहरी नहीं हुआ क्योंकि उसकी जड़ें अभी तक गाँव की माटी में जमी हैं . बहुत सुन्दर लयबद्ध कविता .

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  4. वाह बहुत सुंदर और मन को स्पर्श करता सच्चा कथन मन शहरी ना हुआ।

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