मेरी यही इबादत है।
सच कहने की आदत है।।
मुश्क़िल होता सच सहना तो।
कहते इसे बग़ावत है।।
बिना बुलाये घर आ जाते।
कितनी बड़ी इनायत है।
कभी ज़रूरत पर ना आते।
इसकी मुझे शि्क़ायत है।।
मीठी बातों में भरमाना।
इनकी यही शराफ़त है।।
दर्पण दिखलाया तो कहते।
देखो किया शरारत है।।
झूठ कभी दर्पण न बोले।
बहुत बड़ी ये आफत है।।
ऐसा सच स्वीकार किया तो।
मेरे दिल में राहत है।।
रोज विचारों से टकराकर।
झुका है जो भी आहत है।।
सत्य बने आभूषण जग का।
यही सुमन की चाहत है।।
-श्यामल सुमन
बहुत खूब 👌
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-07-2018) को "झड़ी लगी बरसात की" (चर्चा अंक-3048) (चर्चा अंक-3034) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी