सांसों की लागी डोरी!
तृष्णा रह रह पटेंग मारती,
हिंडोला झूल रही है काया!!
तन की तृष्णा तनिक है!
मन की तृष्णा है अनन्त !!
धन दौलत धरी रह जाये,
बुलावा जब पी का आये!!
काम क्रोध का है मेला,
जिसमें बिचरत नश्वर काया!
टूटी जब साँसों की डोरी,
टूट गया सजा हिंडोला !
मिट्टी का तन रह गया अकेला!!
#उर्मिला सिंह
सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और जीवन के सत्य को दर्शाती पंक्तियाँ शुभकामनाएं उर्मिला जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह वाह ...दी आध्यात्म और हिंडोला अद्भुत साम्य
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-07-2018) को "गीतकार नीरज तुम्हें, नमन हजारों बार" (चर्चा अंक-3039) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्रणाम दीदी बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteअद्भुत सुंदर आध्यात्मिक हिण्डोला।
ReplyDeleteबहुत सुंदर दी रचना के माध्यम से संसार निस्सार है कहती प्रेरक रचना।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २३ जुलाई २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह ! हिंडोले के माध्यम से संसार की नश्वरता का परिचय देती सुंदर कविता
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