Sunday, July 15, 2018

क्षणिकाएँ....सविता चड्ढा


पेंचर हुए टायर में
हवा भरते देखने की साक्षी 
बचपन में रह चुकी हूँ।

इसलिए आजतक 
किसी के नुकीले शब्द,
किसी की बेवजह घूरती निगाहें,
बेवजह के ठहाके और रुदन भी
मेरा आत्मबल-मनोबल नहीं गिरा सके।  

-*-*-
तूफ़ानों में  हवा का रुख देखा है, देखा है 
तो तूफ़ानों में हवा बन जाओ,  लहराओ ऊंचे ऊंचे
जितना ऊंचे जा सकें जाओ।
तूफ़ान ख़त्म होने पर 
धीरे धीरे ज़मीन पर आ जाओ
अगले तूफ़ान की तैयारी में
अपने भीतर उड़ने की क्षमता लाओ 
जब भी आ जाए तूफ़ान 
बस हवा बन जाओ। 

-*-*-
एक समय था,
कुछ न था,
बस अरमान ही थे।

एक समय है,
सब कुछ है,
अरमान नदारद हैं। 

-सविता चड्ढा

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-07-2018) को "बच्चों का मन होता सच्चा" (चर्चा अंक-3034) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. मंथन देती रचना।
    अप्रतिम

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