नमक की डली
जैसी होती है प्रेम-संगिनी
प्रेम करने वाली
पल में गुस्सा हो
बन जाती है कठोर
फिर पिघल भी जाती है दूसरे ही पल
जीवन के हर साग में
डलकर पिघलती-घुलती रहती है
बेस्वाद जीवन को
स्वादिष्ट बनाने के लिए...
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प्रेम में
दर्द झेलती हैं
परन्तु दवा प्रेम की ही पीती हैं
वो जीती जाती है
चेहरे पर अभिमान लिए
साबित करने
जुनूनी प्रेम की महत्ता
जो होता है उसके लिए
आरती के सजे थाल सा सुंदर
कुरान की आयतों सा पाक...
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आकार हो
या निराकार
सजीव हो
या निर्जीव हो
जीव हो
या जन्तु
सब जगह हर सूरत में
हर मूरत में
दिखती है उसे छवि
अपने मन में बसे पुरूष की...
-डॉ. शालिनी यादव
बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाह बहुत खूब ।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-07-2018) को "अज्ञानी को ज्ञान नहीं" (चर्चा अंक-3042) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Ye kitna sundar hai!
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