यही मेरी मुहब्बत का सिला है
मिला है दर्द दिल तोड़ा गया है
हुआ जो कुछ भी मेरे साथ यारो
“ज़माने में यही होता रहा है”
उसे मालूम है मैं बेख़ता हूँ
न जाने फिर भी क्यों मुझसे ख़फ़ा है
ये जिस अंदाज़ से झटका है दामन
बिना बोले ही सब कुछ कह दिया है
बहा जिस के सुरों से दर्द दिल का
वो साज़ अब बेसुरा सा हो गया है
हुए बरसों में उन से रु-ब-रु हम
कोई ज़ख्म-ए-कुहन फिर खिल गया है
ये मेरी खोखली सी ज़िंदगी है
गले में ढोल जैसे बज रहा है
मैं "तन्हा" चल रहा हूँ कारवाँ में
नहीं कोई किसी से वास्ता है
-मोहन जीत ’तन्हा’
ज़ख्म-ए-कुहन = पुराना घाव
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-07-2018) को "ग़ैर की किस्मत अच्छी लगती है" (चर्चा अंक-3046) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उम्दा!
ReplyDeleteबेहतरीन गजल।
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteहुए बरसों में उन से रु-ब-रु हम
ReplyDeleteकोई ज़ख्म-ए-कुहन फिर खिल गया है...बहुत खूब...उम्दा ग़जल
👏👏👏👏लाजवाब ...जहीन लेखन
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