अब तो ख़ुशी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आसूदगी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
घर के बुज़ुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँट कर गए
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’
आसूदगी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
घर के बुज़ुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँट कर गए
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’
- आलोक श्रीवास्तव
प्राप्ति स्रोतः काव्यांचल
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteखुशी के नाम पर खुद को लुटा दिया
कर के तन्हां खुद को भुला दिया
उम्मीदे चराग जलाता भी तो कैसे
घर के चरागों घर को जला दिया
आलोक जी बुजुर्गो के बारे मे आपके ख्यालात पढ कर बहुत खुशी हुयी.....
ReplyDeletewah !
ReplyDeleteBilkul sahi kaha aapne sab mashini robert ki tarah ho gyein hai.... Bin samvedana ke hai aaj aadmi,,,, umda saarthak prbhaawi rchna!!
ReplyDeleteZabardast gazal...!!!
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर
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