चाहत के हक़दार नहीं थे
उल्फ़त के बाज़ार नहीं थे
कैसे होती ये ग़ज़ल मुकम्मल,
शेर भी कुछ दमदार नहीं थे
बहुत तलाशा मिली न मंज़िल,
रास्ते भी हमवार नहीं थे
चमन की लूटी जिसने ख़ुशबू,
फूल ही है, वो ख़ार नहीं थे
गीत ख़शी के क्या गाते हम,
साथ हमारे वो यार नहीं थे
महफ़िल में जो घाव मिले हैं,
दुश्मन के वो वार नहीं थे
क्या हुआ जो पाई ठोकर.
अच्छे के तो आसार नहीं थे
-अमर मलंग
........... मधुरिमा
से
एक खूबशूरत ग़ज़ल पढ़वाने के लिए सादर आभार ,इन पंक्तिओं से स्वागत है इस रचना का
ReplyDeleteदुश्मन था दमदार नहीं था
साहिल था मझधार नहीं था
रस्ते में थी बिछी केतकी
रास्ता था पर हमवार नहीं था
अज़ीज़ जौनपुरी
कैसे होती ये ग़ज़ल मुकम्मल,
ReplyDeleteशेर भी कुछ दमदार नहीं थे .... बहुत खूब !
गीत ख़शी के क्या गाते हम,
ReplyDeleteसाथ हमारे वो यार नहीं थे bahut khoob ....