तुम्हारी जिव्हा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू में रखना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया हर रंग का लहू
परन्तु एक बार आओ
मेरी राम रसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में
नहीं, मेरे चूल्हे में भी है
ये पृथ्वी स्वयं हांडी बनकर
खदबदा रही है
केवल द्रौपदियों को ही
मिलती है यह हांडी
पांच पतियों के
परम सखा से
- अजन्ता देव
..... नायिका से...
Bahut sunder rachna..... !!
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-9-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1747 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
द्रौपदी को हर युग में हांडी मिलही जाती है.सखा कोई भी हो .
ReplyDeleteसुन्दर रचना के लिए बधाई.
गंभीर चिंतन ...
ReplyDeleteबहुत सशक्त अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteअनुपम भाव, सशक्त शब्द संयोजन, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !
ReplyDeleteसही भाव, सही रचना।
ReplyDeleteसुंदर अर्थ ,सुंदर भाव..,सुंदर कविता....
ReplyDeleteउत्कृष्ट भावो को व्यक्त करती बेहतरीन रचना
ReplyDelete,सुंदर भाव..,सुंदर कविता....
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