आंचल में छुपाते हुए
मां ने धीरे से कहा-
बेटी! डरो नहीं
अब तो मैं तुम्हारे पास
बैठी हूँ.
इतना सुनते ही, सहमी सी थोड़ी
दबी जुबान से बेटी ने कहा-
मां, यहां कैसे-कैसे लोग हैं ?
जो माँ को माँ, बेटी को बेटी
बहन को बहन
कहना भी भूल गए
मानवता को तार-तार कर
इंसान से हैवान बनते
ये कैसे आदमखोर लोग हैं
अब तो एक अकेली,
बाहर निकलने से भी
डर लगता है
इतना सुनते ही,
मां की आँखें नम हो गई.....
-थानू निषाद "अकेला"
टिकरापारा, फिंगेश्वर (छ.ग.)
सच में सोचनीय है ।
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील रचना
ReplyDeletekhubsurat abhivaykti....
ReplyDeletegreat ! current situation .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-09-2014) को "सपनों में जी कर क्या होगा " (चर्चा मंच 1735) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteभूले हुए को उसकी तमीज याद दिलाना लक्ष बन गया हो जैसे साहित्य का.... स्त्री का...
ReplyDeleteएकता और जागरूकता बेहद जरूरी है
मर्म को छूती बहुत सुन्दर रचना, आज इंसान में हैवान घुस गया है,वह यह भूल गया है कि उसके स्वयं के भी एक माँ , बहन बेटी भी है , इसलिए यह डर स्वाभाविक है
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