Saturday, February 1, 2020

रिसती दीवार.... रंजना डीन

सीलन से यूँ ही नहीं गिर जाती 
दीवारें 
बहुत दिनों तक खुद में ही
समेटती, सहेजती रहती है 
नमी को 
संभालती रहती हैं हर कमी को 
पर जब ये नमी उभर आती है 
बूँदें बन कर सीली हुई दीवारों पर 
फिसलती हैं लकीर बनकर 
किनारों पर 
तब हमदर्दी की धूप की गर्मी 
मीठे से लफ़्ज़ों की नरमी 
अगर सुखा ले गयी ये सीलन 
तो फिर जी उठता है सहने का जज्बा
वर्ना किसी दिन यूँ ही
घावों सी रिसती दीवार
दम तोड़कर ढह जाती है

4 comments:

  1. कितना मर्म बांधा है इन शब्दों में।
    हृदयस्पर्शी।

    नई पोस्ट पर आपका स्वागत है- लोकतंत्र 

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  2. अत्यंत मार्मिक. सुंदर रचना 👏 👏

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  3. Fantastic Content! Thank you for the post. more:iwebking

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