यूँ तो अपनी ओर से कोई कसर कब छोड़ता है
पर कहाँ होता भला वो, आदमी जो सोचता है
नींद रातों की, सुकूँ दिन का नहीं बिकता कहीं भी
इन को पाने का हुनर तो बस फ़कीरों को पता है
एक पल में है बुरा; अच्छा बहुत ही दूसरे पल
क्या अजब फितरत, कभी दानव, कभी वो देवता है
ज़िन्दगी के नाव की पतवार रिश्तों का यकीं है
डूब जाती एक दुनिया, जब भरोसा टूटता है
धूप या छाया मिले, स्वीकारना पड़ता सभी को
पर रखे समभाव कैसे, कोई विरला जानता है
दर्द भी, आनंद भी, सौगात भी, संघर्ष भी है
बात ये कि ज़िन्दगी को कौन कैसे देखता है !!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 11 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर।
ReplyDelete