सारी ज़िंदगी
मरम्मत करती रही हूँ
फटे कपड़ों की
कभी बखिया करके
तो कभी पैबंद लगा के
कभी तुरप के
तो कभी छेदों को रफू करके !
धूप की तेज़ रोशनी और
साफ़ नज़र की कितनी
ज़रुरत होती थी उन दिनों
सुई में धागा पिरोने के लिए
और सफाई से सीने के लिए !
मरम्मत तो अब भी
करती ही रहती हूँ
कभी रिश्तों की चादर में
पड़े हुए छेदों को
रफू कर जोड़ने के लिए
तो कभी ज़िंदगी के
उधड़ते जा रहे लम्हों को
तुरपने के लिए
कभी विदीर्ण मन की
चूनर पर करीने से
पैबंद लगाने के लिए
तो कभी भावनाओं के
जीर्ण शीर्ण लिबास को
बखिया लगा कर
सिलने के लिए !
बस एक सुकून है कि
इस ढलती उम्र में
यह काम रात के
निविड़ अन्धकार में ही
बड़े आराम से हो जाता है
इसके लिए मुझे
किसी सुई धागे और
तेज़ रोशनी की
ज़रुरत नहीं होती !!
लेखिका - साधना वैद
अरे वाह ! ह्रदय से बहुत बहुत आभार आपका यशोदा जी ! मैं बड़ी हसरत से सोचा करती थी कितनी विशिष्ट रचनाएं होती हैं जो आपकी धरोहर में सम्मिलित हो पाती हैं ! आज खुद को यहाँ देख कर अभिभूत हूँ ! तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आपका !
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteवाह! बढ़िया रचना !
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