नींद आती नहीं धड़के कि बस आवाज़ से।
तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज़-दिल के साज से।
दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अंदाज़ से।
हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से।
सैंकड़ों मुर्दे जिलाए औ' मसीहा नाज़ से,
मौत शर्मिंदा हुई क्या-क्या तेरे ऐजाज़ से।
बागवां कुंजे कफ़स में मुद्दतों से हूँ असीर,
अब खुले पर भी तो मैं वाक़िफ़ नहीं परवाज़ से।
कब्र में राहत से सोए थे न था महशर का ख़ौफ़,
बाज़ आए ऐ मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से ।
बे ग़फ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो,
चौंक पड़ता हूँ शिकस्तः होश की आवाज़ से।
नाज़े माशुकाना से ख़ाली नहीं है कोई बात,
मेरे लाश को उठाए है वो किस अंदाज़ से।
क़ब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका 'रसा',
चौंकाने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से।
-भारतेन्दु हरिश्चद्र
-भारतेन्दु हरिश्चद्र
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (19-09-2019) को "दूषित हुआ समीर" (चर्चा अंक- 3463) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'