शर्तों के धागों में
उलझती जाती ज़िंदगी
चाहे -अनचाहे पलों को
जीने को मजबूर
बालपन से ही
टाँक दी जाती है
जीवन जीने की शर्तें
हर बेटियों के दामन में
ज़िंदगी की आजादी है
सिर्फ दूसरों के लिए
जो नहीं मानती
शर्तों से परे हटकर
ज़िंदगी जीती हैं आजादी से
अपने तौर-तरीके से
बहुत मुश्किल होता है
पर हार नहीं मानती
वह अलंकृत होती
कई नामों से पर फिर भी
अपना वजूद को
कायम रखकर
अपना लोहा मनवा लेती
शर्तों के दायरे में जीने वाली
घर की चारदीवारी
सिमट कर रह जाती
ज़िंदगी भर रिश्तों को
रखती सहेजकर
लड़कर-झगड़कर
तो कभी प्यार से
रिश्तों के बीच
खुशियाँ तलाशती
माँ-बहन तो कभी बेटी
बनकर शर्तें निभाती
और अपने स्वप्न दबा लेती
परिवार की खुशियों तले !!
-- अनुराधा चौहान
सटीक सृजन ,शर्तों पर जिंदगी जीते है
ReplyDeleteकभी अपनी शर्तें हो तो क्या बात
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-09-2019) को " आज जन्मदिन पर भगत के " (चर्चा अंक- 3472) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
माँ-बहन तो कभी बेटी
ReplyDeleteबनकर शर्तें निभाती
और अपने स्वप्न दबा लेती
परिवार की खुशियों तले
बहुत खूब ,सादर
हार्दिक आभार आदरणीय
ReplyDeleteउलझती जाती ज़िंदगी
ReplyDeleteचाहे -अनचाहे पलों को
जीने को मजबूर
ye aaj ki aadhuniktaa ki zindgi bhi darshaati he aur ik istri ki manodshaa bhi
hum sab uljhe huye roshton ke stah jine ko mazboor ho ke reh gye hain
baahr muskuraate aur man ke bheetar sab kasmksaate hain
saarthak aur sateek rchnaa ...
bdhaayi
शर्तों के धागों में
ReplyDeleteउलझती जाती ज़िंदगी
रचना की शुरुआत ही रचना की आत्मा है, किसी गाना के मुखड़ा के तरह ... नारी पक्ष को रूबरू करती रचना ...