हाँ
मैं प्रवासी हूँ
शायद इसी लिए
जानता हूँ
कि मेरे देश की
माटी में
उगते हैं रिश्ते
*
बढ़ते हैं
प्यार की धूप में
जिन्हें बाँध कर
हम साथ ले जाते हैं
धरोहर की तरह
और पोसते हैं उनको
कलेजे से लगाकर
*
क्योंकि घर के बाहर
हमें धन, वैभव,
यश और सम्मान
सब मिलता है,
नहीं मिलती तो
रिश्तों की
वो गुड़ सी मिठास
जो अनगढ़ भले ही हो
लेकिन होती
बहुत अनमोल है
*
हाँ मैं प्रवासी हूँ
हाँ मैं प्रवासी हूँ
- मंजू मिश्रा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " सोमवार 23 सितम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमीना जी, अापका हृदय से अाभार !
Deleteधन्यवाद यशोदा ! इस मंच पर मेरी रचना प्रस्तुत की अापने, अापके स्नेह के लिए हार्दिक अाभार
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDelete"जो अनगढ़ भले ही हो
ReplyDeleteलेकिन होती
बहुत अनमोल है"...
सच में रिश्ते जो रूहानी होते हैं .. उनके कोई शक़्ल होते ही कहाँ हैं ... वो तो बस निराकार ही होते हैं ... ठीक उस क़ुदरत की तरह ... जो रचता तो सब है , पर दिखता कब है भला ...
धन्यवाद !
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-09-2019) को "बदल गया है काल" (चर्चा अंक- 3468) पर भी होगी।--
ReplyDeleteचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत कमाल की भावपूर्ण रचना मंजू जी की ...
ReplyDeleteसभी प्रवासियों की तरफ से रिश्तों की अहमियत और मान रखती हुयी ...
वाह! भावों की अनंत गहराई से निकली सहज और मन को छू लेने वाली अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना
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