जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश,
बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन,
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।
वो आके पेहलू में ऐसे बैठे,
के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत,
ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।
कभी कभी शाम ऐसे ढलती है
जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुंवा
हमारे दिल से गुज़र रहा है।
ये शर्म है या हया है, क्या है,
नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम
हमारी आंखों में रुक गयी है।
- गुलज़ार
बेहद खूबसूरत सृजन गुलजार साहब का ।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह .... शानदार
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.9.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3449 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत
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