मदमस्त हवाओ से भरा
ये मेरा शहर
आज मेरे लिए ही बेगाना क्यू है
हर तरफ
महकते फूल, चहकते पंक्षी
फिर मुझे ही
झुक जाना क्यू है
आज फिर इक चुप्पी सी साधी है
इन हवाओ ने,
मेरे लिए
नहीं तो कोई,
दूर फिजाओ में जाता क्यू है
छुपा रहा है
हमसे कोई राज, ये पवन
नहीं तो और भी है,
इसकी राहों में
ये इक हमी को तपाता क्यू है
आज बड़ा खुदगर्ज, बड़ा मगरूर
सा लगता है ये मेरा शहर
शायद इसकी मुलाकात हुई है 'उनसे'
नहीं तो ये हमी को जलाता क्यू है
ए 'अमर' जरूर, रसूख
कुछ कम हुआ है शायद
वरना ये अपना हुनर
हमी पे दिखाता क्यू है !!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-09-2019) को "आलस में सब चूर" (चर्चा अंक- 3467) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 24 सितंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद