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सब लोग मुन्तज़िर है वहाँ माहताब के ।
चेहरे पढ़े गए हैं जहाँ इज़्तिराब के ।।
छुपता कहाँ है इश्क़ छुपाने के बाद भी ।
होने लगे हैं शह्र में चर्चे ज़नाब के ।।
दौलत के नाम पर वही भटके हुए मिले ।
किस्से सुना रहे थे जो मुझको सराब के ।।
बदला ज़माना है या मुकद्दर खराब है ।
मिलते नहीं हैं यार भी अपने हिसाब के ।।
साज़िश रची गयी है वहीं देश के ख़िलाफ़ ।
नारे जहाँ लगे थे कभी इंकलाब के ।।
साकी उसे पिलाने की ज़िद कर न बारहा ।
जो जी रहा है मुद्दतों से बिन शराब के ।।
नाज़ ओ नाफ़ासतों से वो मगरूर क्यूँ न हों ।
जब दाम लग रहे हैं सनम के हिज़ाब के ।।
है उनकी खुश्बुओं से मुअत्तर चमन मेरा ।
भेजे थे तुमने फूल जो मुझको ग़ुलाब के ।।
दरिया ए आग इश्क़ है छूना सँभल के तुम ।
जलते दिखे हैं हाथ यहाँ आफ़ताब के ।।
देखा है किस निगाह से हमने तुझे ऐ चाँद ।
जा पढ़ तू मेरे शेर अदब की क़िताब के ।।
-नवीन मणि त्रिपाठी
शानदार ....
ReplyDeleteतहेदिल से बहुत शुक्रिया
DeleteUmmda
ReplyDeleteतहेदिल से बहुत शुक्रिया
Deleteतहेदिल से बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत शुक्रिया
Deleteलाजवाब
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत शुक्रिया
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत शुक्रिया
Deleteआ0 तहेदिल से बहुत शुक्रिया
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