अब तुम कही भी नही हो
कही भी नही
ना मेरी यादों में
न मेरी बातों में
अब मैं मसरूफ रहती हूँ
दाल के कंकड़ चुन'ने में
शर्ट के दाग धोने में
क्यारी में टमाटर बोने में
एक पल भी मेरा
कभी खाली नही होता
जो तुझे याद करूँ
या तुझे महसूस करू
मैंने छोड़ दिए
नावेल पढने
मैंने छोड़ दिए है
किस्से गढ़ने
अब मुझे याद रहता हैं बस
सुबह का अलार्म लगाना
मुंह अँधेरे उठ चाय बनाना
और सबके सो जाने पर
उनको चादर ओढ़ाना
आज तुमको यह कहने की
क्यों जरुरत आन पढ़ी हैं
सामने आज मेरी पुरानी
अलमारी खुली पड़ी हैं
किस्से दबे हुए हैं जिस में
कहानिया बिखरी सी
और उस पर मुह चिढ़ाता
तेरा उतारा सफ़ेद कुरता भी
नही नही !!अब कही भी नही हो
न मेरी यादो में न मेरी बातो में
फिर भी अक्सर मुझको सपने में
यह कुरता क्यों दिखाई देता हैं ......
- नीलिमा शर्मा
सुन्दर रचना
ReplyDeleteबस कहने भर से यादें कहा धूमिल होती है।जितना बिसराना चाहो उतनी हीऔर पसरती हैं ।
ReplyDeleteहाँ यादें तब धूमिल समझना जब व्यस्त रहने की जरूरत न पड़े।जब यूँ कविता गढ़ने की जरूरत न पड़े
बहुत सुन्दर... हृदयस्पर्शी सृजन।
वाह!खूबसूरत सृजन !
ReplyDeleteअप्रतिम् भाव
ReplyDeleteवो ज़िन्दगी ही क्या.....जिसमें,
नामुमकिन सा.. कोई सपना न हो.💖
अच्छी कविता
ReplyDeleteस्त्री विमर्श पर रचित भावपूर्ण मुक्त कविता! वर्तनी शुद्ध होती तो और अच्छा रहता।
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