पेड़
तुम्हें धन्यवाद
पिता और प्रपिताओं से खड़े हो
सदियों से
हमें सुख देने को.,.
पेड़! तुम्हें धन्यवाद ।
तुम्हारे
खुरदुरे शरीर पर हाथ फिराती
सोच रही हूँ
कि तुम क्या सोच रहे हो?
तुम्हारी धड़कन नहीं सुनाई देती
पर तुम हहराने लगते हो पत्तियों की आवाज़ में
ख़ूब बोल सकते हैं पेड़ हवाओं की अनुमति पर
पूरा जंगल बोल रहा है
गिलहरियों, झींगुरों की आवाज़ में
मैं तुम्हारे झुके तने पर बैठी
अपनी सारी कल्पना लिए
तुम्हारे जड़ों की सोच तक घुसने को इच्छुक!
तुम जाने किस स्वर में गूँजने लगे मेरे भीतर
“इच्छा है
व्याकुलता नहीं,
इसी से पहुँच नही पाती जड़ों के सत्य तक “
तुम व्याकुल होती तो बुद्ध हो जातीं
पातीं मुझ से होकर सत्य तक जाने की राह
तुम स्नेहिल होती तो कृष्ण हो जाती
पातीं मेरी डालों पर पड़े झूले की पींग में प्रेम का आकाश
तुम प्रेमी होतीं तो राम हो जाती
पूछती मुझ से अपने खोये अर्धसत्य का पता
तुम जिज्ञासु होतीं तो न्यूटन हो जाती
पातीं मनुष्य की विराटता से बड़ा है धरती का गुरुत्व
कोई ऋषि हो जाती अगर साधक होती तो
मेरी जड़ों पर बैठ स्वयं में पैठतीं!
तुम केवल इच्छुक हो
इच्छा लहर है संकल्प और विकल्प की
समर्पणहीन सी !
मैं समर्पित हूँ धरती को
हवा को
बादल और आकाश को..
सदियों का समर्पण
ही कर पाता है अर्पण कुछ
अपने को या दूसरे को..”
गूँजा जाने किस स्वर में मेरे भीतर पेड़
मिट्टी के सच की तरह!!
मैं चुपचाप उठी और जंगल के दो फूल उस वृक्ष के नीचे रख,
चल पड़ी!
लगा,
हर वृक्ष बोधि वृक्ष है
जिसे प्रतीक्षा है अपने लिए किसी शुद्ध मन
बुद्ध की!!
-डॉ. शैलजा सक्सेना
तुम व्याकुल होती तो बुद्ध हो जातीं
ReplyDeleteपातीं मुझ से होकर सत्य तक जाने की राह
तुम स्नेहिल होती तो कृष्ण हो जाती
पातीं मेरी डालों पर पड़े झूले की पींग में प्रेम का आकाश
तुम प्रेमी होतीं तो राम हो जाती
पूछती मुझ से अपने खोये अर्धसत्य का पता
तुम जिज्ञासु होतीं तो न्यूटन हो जाती
पातीं मनुष्य की विराटता से बड़ा है धरती का गुरुत्व
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर सृजन।